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Channel: Bhagavad Gita As It Is - Hindi ( श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप )
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अध्याय 7 श्लोक 7 - 16 , BG 7 - 16 Bhagavad Gita As It Is Hindi

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 अध्याय 7 श्लोक 16

हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी |



अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान

श्लोक 7 . 16



चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोSर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ || १६ |



चतुः विधाः– चार प्रकार के; भजन्ते– सेवा करते हैं; माम्– मेरी; जनाः – व्यक्ति; सु-कृतिनः – पुण्यात्मा; अर्जुन – हे अर्जुन; आर्तः– विपदाग्रस्त, पीड़ित; जिज्ञासुः– ज्ञान के जिज्ञासु; अर्थ-अर्थी– लाभ की इच्छा रखने वाले; ज्ञानी– वस्तुओं को सही रूप में जानने वाले, तत्त्वज्ञ; – भी; भरत-ऋषभ– हे भरतश्रेष्ठ |





भावार्थ

हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी |



 तात्पर्य



दुष्कृती के सर्वथा विपरीत ऐसे लोग हैं जो शास्त्रीय विधि-विधानों का दृढ़ता से पालन करते हैं और ये सुकृतिनः कहलाते हैं अर्थात् ये वे लोग हैं जो शास्त्रीय विधि-विधानों, नैतिक तथा सामाजिक नियमों को मानते हैं और परमेश्र्वर के प्रति न्यूनाधिक भक्ति करते हैं | इस लोगों की चार श्रेणियाँ हैं – वे जो पीड़ित हैं, वे जिन्हें धन की आवश्यकता है, वे जिन्हें जिज्ञासा है और वे जिन्हें परमसत्य का ज्ञान है | ये सारे लोग विभिन्न परिस्थितियों में परमेश्र्वर की भक्ति करते रहते हैं | शुद्ध भक्ति निष्काम होती है और उसमें किसी लाभ की आकांशा नहीं रहती | भक्तिरसामृत सिन्धु में (१.१.११) शुद्ध भक्ति की परिभाषा इस प्रकार की गई है –

अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् |
आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा ||

“मनुष्य को चाहिए कि परमेश्र्वर कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति किसी सकामकर्म अथवा मनोधर्म द्वारा भौतिक लाभ की इच्छा से रहित होकर करे | यह शुद्धभक्ति कहलाती है |”

जब ये चार प्रकार के लोग परमेश्र्वर के पास भक्ति के लिए आते हैं और शुद्ध भक्त की संगती से पूर्णतया शुद्ध हो जाते हैं, तो ये भी शुद्ध भक्त हो जाते हैं | जहाँ तक दुष्टों (दुष्कृतियों) का प्रश्न है उनके लिए भक्ति दुर्गम है क्योंकि उनका जीवन स्वार्थपूर्ण, अनियमित तथा निरुद्देश्य होता है | किन्तु इनमें से भी कुछ लोग शुद्ध भक्त के सम्पर्क में आने पर शुद्ध भक्त बन जाते हैं |
जो लोग सदैव सकाम कर्मों में व्यस्त रहते हैं, वे संकट के समय भगवान् के पास आते हैं और तब वे शुद्धभक्तों की संगति करते हैं तथा विपत्ति में भगवान् के भक्त बन जाते हैं | जो बिलकुल हताश हैं वे भी कभी-कभी शुद्ध भक्तों की संगति करने आते हैं और ईश्र्वर के विषय में जानने की जिज्ञासा करते हैं | इसी प्रकार शुष्क चिन्तक जब ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र से हताश हो जाते हैं तो वे कभी-कभी ईश्र्वर को जानना चाहते हैं और वे भगवान् की भक्ति करने आते हैं | इस प्रकार ये निराकार ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा के ज्ञान को पार कर जाते हैं और भगवत्कृपा से या उनके शुद्ध भक्त की कृपा से उन्हें साकार भगवान् का बोध हो जाता है | कुल मिलाकर जब आर्त, जिज्ञासु, ज्ञानी तथा धन की इच्छा रखने वाले समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाते हैं और जब वे यह भलीभाँति समझ जाते हैं कि भौतिक आसक्ति से अध्यात्मिक उन्नति का कोई सरोकार नहीं है, तो वे शुद्धभक्त बन जाते हैं | जब तक ऐसी शुद्ध अवस्था प्राप्त नहीं हो लेती, तब तक भगवान् की दिव्यसेवा में लगे भक्त सकाम कर्मों में या संसारी ज्ञान की खोज में अनुरक्त रहते हैं | अतः शुद्ध भक्ति की अवस्था तक पहुँचने के लिए मनुष्य को इन सबों को लाँघना होता है |





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By Srila Prabhupada in Hindi ,This is an attempt to make it available online , 
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