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Channel: Bhagavad Gita As It Is - Hindi ( श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप )
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अध्याय 17 श्लोक 17 - 3 , BG 17 - 3 Bhagavad Gita As It Is Hindi

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 अध्याय 17 श्लोक 3


हे भरतपुत्र! विभिन्न गुणों के अन्तर्गत अपने अपने अस्तित्व के अनुसार मनुष्य एक विशेष प्रकार की श्रद्धा विकसित करता है । अपने द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार ही जीव को विशेष श्रद्धा से युक्त कहा जाता है ।


अध्याय 17 : श्रद्धा के विभाग

श्लोक 17.3



सत्त्वानुरुपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत |

श्रद्धामयोSयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः || ३ ||





सत्त्व-अनुरूपा - अस्तित्व के अनुसार; सर्वस्य - सबों की; श्रद्धा - श्रद्धा, निष्ठा; भवति - हो जाती है; भारत - हे भरतपुत्र; श्रद्धा - श्रद्धा; मयः - से युक्त; अयम् - यह; पुरुषः - जीवात्मा; यः - जो; यत् - जिसके होने से; श्रद्धः - श्रद्धा; सः - इस प्रकार; एव - निश्चय ही; सः - वह ।






भावार्थ




हे भरतपुत्र! विभिन्न गुणों के अन्तर्गत अपने अपने अस्तित्व के अनुसार मनुष्य एक विशेष प्रकार की श्रद्धा विकसित करता है । अपने द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार ही जीव को विशेष श्रद्धा से युक्त कहा जाता है ।




तात्पर्य





प्रत्येक व्यक्ति में चाहे वह जैसा भी हो, एक विशेष प्रकार की श्रद्धा पाई जाती है । लेकिन उसके द्वारा अर्जित स्वभाव के अनुसार उसकी श्रद्धा उत्तम (सतोगुणी), राजस (रजोगुणी) अथवा तामसी कहलाती है । इस प्रकार अपनी विशेष प्रकार की श्रद्धा के अनुसार ही वह कतिपय लोगों से संगति करता है । अब वास्तविक तथ्य तो यह है कि, जैसा पंद्रहवें अध्याय में कहा गया है, प्रत्येक जीव परमेश्र्वर का अंश है, अतएव वह मूलतः इन समस्त गुणों से परे होता है । लेकिन जब वह भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को भूल जाता है और बद्ध जीवन में भौतिक प्रकृति के संसर्ग में आता है,तो वह विभिन्न प्रकार की प्रकृति के साथ संगति करके अपना स्थान बनाता है । इस प्रकार से प्राप्त कृत्रिम श्रद्धा तथा अस्तित्व मात्र भौतिक होते हैं । भले ही कोई किसी धारणा या देहात्मबोध द्वारा प्रेरित हो, लेकिन मूलतः वह निर्गुण या दिव्य होता है । अतएव भगवान् के साथ अपना सम्बन्ध फिर से प्राप्त करने के लिए उसे भौतिक कल्मष से शुद्ध होना पड़ता है । यही एकमात्र मार्ग है, निर्भय होकर कृष्णभावनामृत में लौटने का । यदि कोई कृष्ण भावना मृत में स्थित हो, तो उसका सिद्धि प्राप्त करने के लिए वह मार्ग प्रशस्त हो जाता है । यदि वह आत्म-साक्षात्कार के इस पथ को ग्रहण नहीं करता, तो वह निश्चित रूप से प्रकृति के गुणों के साथ बह जाता है ।



इस श्लोक में श्रद्धा शब्द अत्यन्त सार्थक है । श्रद्धा मूलतः सतोगुण से उत्पन्न होती है । मनुष्य की श्रद्धा किसी देवता, किसी कृत्रिम ईश्र्वर या मनो धर्म में हो सकती है लेकिन प्रबल श्रद्धा सात्त्विक कार्यों से उत्पन्न होती है । किन्तु भौतिक बद्ध जीवन में कोई भी कार्य पूर्णतया शुद्ध नहीं होता । वे सब मिश्रित होते हैं । वे शुद्ध सात्त्विक नहीं होते । शुद्ध सत्त्व दिव्य होता है, शुद्ध सत्त्व में रहकर मनुष्य भगवान् के वास्तविक स्वभाव को समझ सकता है । जब तक श्रद्धा पूर्णतया सात्त्विक नहीं होती, तब तक वह प्रकृति के किसी भी गुण से दूषित हो सकती है । प्रकृति के दूषित गुण हृदय तक फैल जाते हैं, अतएव किसी विशेष गुण के सम्पर्क में रहकर हृदय जिस स्थिति में होता है, उसी के अनुसार श्रद्धा स्थापित होती है । यह समझना चाहिए कि यदि किसी का हृदय सतोगुण में स्थित है, तो उसकी श्रद्धा भी सतोगुणी है । यदि हृदय रजोगुण में स्थित है, तो उसकी श्रद्धा रजोगुणी है और यदि हृदय तमो गन में स्थित है तो उसकी श्रद्धा तमो गुणी होती है । इअ प्रकार हमें संसार में विभिन्न प्रकार की श्रद्धाएँ मिलती हैं और विभिन्न प्रकार की श्रद्धाओं के अनुसार विभिन्न प्रकार के धर्म होते हैं । धार्मिक श्रद्धा का असली सिद्धान्त सतोगुण में स्थित होता है । लेकिन चूँकि हृदय कलुषित रहता है, अतएव विभिन्न प्रकार के धार्मिक सिद्धान्त पाये जाते हैं । श्रद्धा की विभिन्नता के कारण ही पूजा भी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है ।




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By Srila Prabhupada in Hindi ,This is an attempt to make it available online , 
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